Wheat Farming Tips In Hindi
Wheat is the main cereal crop in India. The total area under the crop is about 29.8 million hectares in the country. The production of wheat in the country has increased significantly from 75.81 million MT in 2006-07 to an all time record high of 94.88 million MT in 2011-12. The productivity of wheat which was 2602 kg/hectare in 2004-05 has increased to 3140 kg/hectare in 2011-12. The major increase in the productivity of wheat has been observed in the states of Haryana, Punjab and Uttar Pradesh. Higher area coverage is reported from MP in recent years.
गेहूँ के बारे में
गेहूं भारत में मुख्य अनाज वाली फसल है। देश में यह फसल लगभग 29.8 मिलियन हेक्टेयर में उगाई जाती है।
देश में गेहूँ का उत्पादन 2006-07 में 75.81 मिलियन एमटी से 2011-12 में काफी बढ़कर 94.88 मिलियन एमटी
के रिकार्ड पर पहुँच गया। 2004-05 जो गेहूँ की उत्पादकता 2602 किग्रा/ हेक्टेयर थी वह 2011-12 में बढ़कर
3140 किग्रा/ हेक्टेयर
हो गई है। गेहूँ के उत्पादन में प्रमुख वृद्धि हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश राज्यों में देखा गया है।
हाल के वर्षोें में मध्य प्रदेश में अधिक क्षेत्र में इसको बोना देखा गया है।.
देश में गेहूँ का उत्पादन 2006-07 में 75.81 मिलियन एमटी से 2011-12 में काफी बढ़कर 94.88 मिलियन एमटी
के रिकार्ड पर पहुँच गया। 2004-05 जो गेहूँ की उत्पादकता 2602 किग्रा/ हेक्टेयर थी वह 2011-12 में बढ़कर
3140 किग्रा/ हेक्टेयर
हो गई है। गेहूँ के उत्पादन में प्रमुख वृद्धि हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश राज्यों में देखा गया है।
हाल के वर्षोें में मध्य प्रदेश में अधिक क्षेत्र में इसको बोना देखा गया है।.
भारतीय गेहूँ मुलायम/ मध्यम कठोर, मध्यम प्रोटीन, सफेद ब्रेड गेहूँ, कुछ हद तक यू.एस. कठोर सफेद गेहूँ के समान होता है।
मध्य और पश्चिमी भारत में उगाया जानेवाला गेहूं आम तौर पर कठोर, उच्च प्रोटनी वाला और उच्च ग्लूटेन वाला होता है।
भारत में 1.0-1.2 मिलियन टन डुरुम गेहूँ भी उत्पादित होता है, जो अधिकतर मध्यम प्रदेश में होता है। अधिकतर भारतीय
डुरुम बाजार यार्डों में अलगाव की समस्याओं के कारण अलग से विपणित नहीं होता है। हालांकि, मूल्य प्रीमियम पर प्राइवेट
ट्रेड द्वारा कुछ मात्रा में खरीदा जाता है, मुख्य रूप से उच्च मान / ब्रांडेड उत्पादों के प्रोसेसिंग के लिए।.
मध्य और पश्चिमी भारत में उगाया जानेवाला गेहूं आम तौर पर कठोर, उच्च प्रोटनी वाला और उच्च ग्लूटेन वाला होता है।
भारत में 1.0-1.2 मिलियन टन डुरुम गेहूँ भी उत्पादित होता है, जो अधिकतर मध्यम प्रदेश में होता है। अधिकतर भारतीय
डुरुम बाजार यार्डों में अलगाव की समस्याओं के कारण अलग से विपणित नहीं होता है। हालांकि, मूल्य प्रीमियम पर प्राइवेट
ट्रेड द्वारा कुछ मात्रा में खरीदा जाता है, मुख्य रूप से उच्च मान / ब्रांडेड उत्पादों के प्रोसेसिंग के लिए।.
में भारत के स्वतंत्र के समय गेहूँ का उत्पादन एवं उत्पादकता बहुत कम थी। 1950-51 में गेहूँ का उत्पादन केवल 6.46
मिलियन टन और उत्पादकता केवल 663 किग्रा प्रति हेक्टेयर थी, जो भारतीय आबादी के लिए पर्याप्त नहीं थी।
हमारा देश पीएल-480 के तहत यूएसए जैसे कई देशों से हमारे लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा
में गेहूँ आयात करता। उस समय गेहूँ के कम उत्पादन और उत्पादकता के कारण, क) उपजाऊ मिट्टी में उगाने के
समय लॉजिंग के परिणामस्वरूप लंबे उगानेवाले पौधे थे, ख) प्रयुक्त किस्मों की खराब टिलरिंग औक सिंक क्षमता, ग) रोगों
के लिए अधिक संवेदनशीलता, घ) थर्मो और फोटो वेरियन इत्यादि के लिए उच्च संवेदनशीलता जिससे खराब अनुकूलन तथा,
च) पौध के तैयार होने में लंबा समय जिससे मौसम की प्रतिकूलता के साथ ही रोगों, कीटों आदि की अधिकता।.
मिलियन टन और उत्पादकता केवल 663 किग्रा प्रति हेक्टेयर थी, जो भारतीय आबादी के लिए पर्याप्त नहीं थी।
हमारा देश पीएल-480 के तहत यूएसए जैसे कई देशों से हमारे लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा
में गेहूँ आयात करता। उस समय गेहूँ के कम उत्पादन और उत्पादकता के कारण, क) उपजाऊ मिट्टी में उगाने के
समय लॉजिंग के परिणामस्वरूप लंबे उगानेवाले पौधे थे, ख) प्रयुक्त किस्मों की खराब टिलरिंग औक सिंक क्षमता, ग) रोगों
के लिए अधिक संवेदनशीलता, घ) थर्मो और फोटो वेरियन इत्यादि के लिए उच्च संवेदनशीलता जिससे खराब अनुकूलन तथा,
च) पौध के तैयार होने में लंबा समय जिससे मौसम की प्रतिकूलता के साथ ही रोगों, कीटों आदि की अधिकता।.
भारत सरकार ने प्रचलित भारतीय पारिस्थितिक स्थितियों के तहत फसल उत्पादकता बढ़ाने की व्यवहार्यता का आकलन
करने के लिए 1961 में एक आयोग नियुक्त की। भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विभिन्न चरणों के परिणामस्वरूप हमारे
देश में गेहूँ परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है। उत्तर स्वतंत्रता युग में देश हमारी आवश्यकताओं के लिए गेहूँ का आयात
करता लेकिन 60 के बाद के दशकों में हरित क्रांति अवधि में गेहूँ के उत्पादन व उत्पादकता में अत्यधिक वृद्धि के कारण
हमारा देश गेहूँ उत्पादन में आत्म निर्भर हो गया। वर्तमान में, हमारे देश में आवश्यकता से अधिक गेहूँ का उत्पादन हो रहा है
और गोदाम गेहूँ से पूरी तरह भरे हुए हैं।.
भारत में गेहूं उत्पादक क्षेत्रकरने के लिए 1961 में एक आयोग नियुक्त की। भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विभिन्न चरणों के परिणामस्वरूप हमारे
देश में गेहूँ परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है। उत्तर स्वतंत्रता युग में देश हमारी आवश्यकताओं के लिए गेहूँ का आयात
करता लेकिन 60 के बाद के दशकों में हरित क्रांति अवधि में गेहूँ के उत्पादन व उत्पादकता में अत्यधिक वृद्धि के कारण
हमारा देश गेहूँ उत्पादन में आत्म निर्भर हो गया। वर्तमान में, हमारे देश में आवश्यकता से अधिक गेहूँ का उत्पादन हो रहा है
और गोदाम गेहूँ से पूरी तरह भरे हुए हैं।.
देश के सम्पूर्ण गेहूं उत्पादक क्षेत्रों को निम्नलिखित 6 प्रमुख क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया है
क्षेत्र | शामिल राज्य/क्षेत्र | लगभग क्षेत्रफल (लाखहेक्टेयर) |
उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र (एनएचजेड) | जम्मू कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्र (जम्मू, कठुआ और सांबाजिलों को छोड़कर), हिमाचलप्रदेश (ऊना & पोंटा घाटी को छोड़कर), उत्तराखंड (तराई क्षेत्र को छोड़कर) और सिक्किम | 0.8 |
उत्तरी पश्चिमी मैदानी क्षेत्र (एनडब्ल्यूपीजेड) | पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी (झाँसी खंड को छोड़कर), राजस्थान (कोटा और उदयपुर खंड को छोड़कर), दिल्ली, उत्तराखंड का तराई क्षेत्र, ऊना और एचपी का पाओंता घाटी, जे व के का जम्मू, सांबा व कथुआ जिले तथा चंडीगढ़।. | 11.55 |
उत्तरी पूर्वी मैदानी क्षेत्र (एनईपीजेड) | पूर्वीउत्तर प्रदेश (28 जिले), बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा और अन्य पूर्वोत्तर राज्य (सिक्किम को छोड़कर) | 10.5 |
केन्द्रीय क्षेत्र | मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, राजस्थान के कोटा व उदयपुर प्रभाग तथा यूपी का झाँसी प्रभाग।. | 5.2 |
प्रायद्वीपीय क्षेत्र | महाराष्ट्र, तमिलनाडु (नीलगिरी और पलानी की पहाड़ियों को छोड़कर),कर्नाटक और आंध्रप्रदेश | 1.6 |
दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र (एसएचजेड) | तमिलनाडु के नीलगिरी और पलानी की पहाड़ियाँ | 0.1 |
जलवायु आवश्यकता
गेहूं की विस्तृत अनुकूलनशीलता है। यह न केवल उष्णकटिबंधीय और उप उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाया जा सकता है
अपितु सुदीर उत्तर के ठंडे क्षेत्रों और शीतोष्ण कटिबंध में भी, 60 डिग्री से उत्तर ऊंचाई पर भी। गेहूँ कड़ाके की ठंड और
बर्फ सहन कर सकता है और वसंत ऋतु में गर्म मौसम में सेटिंग के साथ वृद्धि कर सकता है। यह समुद्र तल से 3300 मीटर
की ऊंचाई तक उगाया जा सकता है।.
अपितु सुदीर उत्तर के ठंडे क्षेत्रों और शीतोष्ण कटिबंध में भी, 60 डिग्री से उत्तर ऊंचाई पर भी। गेहूँ कड़ाके की ठंड और
बर्फ सहन कर सकता है और वसंत ऋतु में गर्म मौसम में सेटिंग के साथ वृद्धि कर सकता है। यह समुद्र तल से 3300 मीटर
की ऊंचाई तक उगाया जा सकता है।.
सबसे अच्छा गेहूँ उगाने के लिए गेहूँ को अच्छी तरह से पकने के लिए सूखे, गर्म मौसम के साथ उगने के प्रमुख भाग के
दौरान ठंड, नम मौसम के साथ इष्ट क्षेत्र होने चाहिए। गेहूँ बीजों के आदर्श अंकुरण के लिए अनुकूल तापमान 20-25
सेल्सियस होता है, 3.5 से 35 सी के तापमान में बीज अंकुरित हो सकते हैं। अंकुरण में बाधा के बाद बारिश और अंकुर
को बढ़ावा देने के लिए तुषार। एक गर्म और नम जलवायु वाले क्षेत्र गेहूँ के लिए उपयुक्त नहीं होते।.
दौरान ठंड, नम मौसम के साथ इष्ट क्षेत्र होने चाहिए। गेहूँ बीजों के आदर्श अंकुरण के लिए अनुकूल तापमान 20-25
सेल्सियस होता है, 3.5 से 35 सी के तापमान में बीज अंकुरित हो सकते हैं। अंकुरण में बाधा के बाद बारिश और अंकुर
को बढ़ावा देने के लिए तुषार। एक गर्म और नम जलवायु वाले क्षेत्र गेहूँ के लिए उपयुक्त नहीं होते।.
हेडिंग और फूल वाले चरणों के दौरान, जरूरत से ज्यादा उच्च या कम तापमान और सूखा गेहूँ के लिए हानिकारक हैं।
उच्च आर्द्रता और कम तापमान के साथ बादल वाले मौसम, रस्ट के हमले के लिए अनुकूल हैं। गेहूँ के पौध को पकने के
समय 14-15 डिग्री सें. अनुकूल औसत तापमान की आवश्यकता होती है। अनाज बनने और विकास के समय तापमान
स्थितियां उपज के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस अवधि के दौरान 250 डि. सें. से अधिक तापमान से गेहूँ के वजन
कम कर देते हैं। जब तापमान अधिक होता है, तो अत्यधिक ऊर्जा पौधों के ट्रांसपिरेशन प्रक्रिया के माध्यम से चली जाती है
और कम बची ऊर्जा से अनाज अच्छी तरह नहीं बन जाते और उपज भी प्रभावित हो जाती है।
भारत में गेहूँ मुक्य रूप से रबि (जाड़े) की फसल है।.
उच्च आर्द्रता और कम तापमान के साथ बादल वाले मौसम, रस्ट के हमले के लिए अनुकूल हैं। गेहूँ के पौध को पकने के
समय 14-15 डिग्री सें. अनुकूल औसत तापमान की आवश्यकता होती है। अनाज बनने और विकास के समय तापमान
स्थितियां उपज के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस अवधि के दौरान 250 डि. सें. से अधिक तापमान से गेहूँ के वजन
कम कर देते हैं। जब तापमान अधिक होता है, तो अत्यधिक ऊर्जा पौधों के ट्रांसपिरेशन प्रक्रिया के माध्यम से चली जाती है
और कम बची ऊर्जा से अनाज अच्छी तरह नहीं बन जाते और उपज भी प्रभावित हो जाती है।
भारत में गेहूँ मुक्य रूप से रबि (जाड़े) की फसल है।.
मिट्टी
गेहूँ भारत में विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में बोया जाता है। दोमट या दोमट बनावट वाली मिट्टी, अच्छी संरचना और जल
धारण वाली मिट्टी गेहूँ के लिए उपयुक्त होती है। बहुत झरझरे और जरूरत से ज्यादा सूखे तेलों से बचने के लिए सावधानी
रखनी चाहिए। मिट्टी प्रतिक्रिया के लिए तटस्थ होनी चाहिए। अच्छे ड्रेनेज वाली भारी मिट्टी सूखी स्थितियों में गेहूँ उगाने के लिए
उपयुक्त होती है। यह मिट्टी अच्छी तरह वर्षा जल को सोख लेती है और बरकरार रखती है। बेकार संरचनावाली और बेकार
ड्रेनेज वाली भारी मिट्टी गेहूँ के लिए उपयुक्त नहीं होती क्योंकि यह जल निकासी के लिए अच्छी नहीं होती। जल और पोषक
क्षमता में सुधार करके हल्की मिट्टी में भी सफलतापूर्वक गेहूँ उगाया जा सकता है।.
धारण वाली मिट्टी गेहूँ के लिए उपयुक्त होती है। बहुत झरझरे और जरूरत से ज्यादा सूखे तेलों से बचने के लिए सावधानी
रखनी चाहिए। मिट्टी प्रतिक्रिया के लिए तटस्थ होनी चाहिए। अच्छे ड्रेनेज वाली भारी मिट्टी सूखी स्थितियों में गेहूँ उगाने के लिए
उपयुक्त होती है। यह मिट्टी अच्छी तरह वर्षा जल को सोख लेती है और बरकरार रखती है। बेकार संरचनावाली और बेकार
ड्रेनेज वाली भारी मिट्टी गेहूँ के लिए उपयुक्त नहीं होती क्योंकि यह जल निकासी के लिए अच्छी नहीं होती। जल और पोषक
क्षमता में सुधार करके हल्की मिट्टी में भी सफलतापूर्वक गेहूँ उगाया जा सकता है।.
उर्वरक प्रबंधन
महत्वपूर्ण विकास के समय उर्वरक का समय और डालना दूसरा महत्वपूर्ण कार्य था। यह बताया गया कि प्रति हेक्टेयर
120 किलो नाइट्रोजन, 60 किलो फास्फोरस और 30 किलो पोटाश अधिकतम उत्पादकता के लिए आवश्यक हैं।
नाइट्रोजन को 60-60 किग्रा के रूप में दो बार डालना चाहिए पहली सिंचाई के समय तथा इस समय पूरा फास्फोरस
और पोटाश डालना चाहिए। हाल ही में, 180 किग्रा एन/हे. (लगभग 150 किग्रा/ हे. के साथ) गेहूँ की नई किस्में उगाई गई हैं।
भारत-गंगा के मैदानी इलाकों में धान-गेहूँ की उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक हेक्टेयर में 25 किग्रा जिंक का प्रयोग देखा
गया है। हाल ही में गेहूँ के प्रोटीन सामग्री और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए सल्फर का उपयोग देखा गया है।
एमएन (इंडो-गंगा के मैदानी इलाकों में बोरे) की प्रतिक्रिया और बोरान (पूर्वी और सुदूर पूर्वी क्षेत्र) का उपयोग भी लाजमी देखा
गया है।.
120 किलो नाइट्रोजन, 60 किलो फास्फोरस और 30 किलो पोटाश अधिकतम उत्पादकता के लिए आवश्यक हैं।
नाइट्रोजन को 60-60 किग्रा के रूप में दो बार डालना चाहिए पहली सिंचाई के समय तथा इस समय पूरा फास्फोरस
और पोटाश डालना चाहिए। हाल ही में, 180 किग्रा एन/हे. (लगभग 150 किग्रा/ हे. के साथ) गेहूँ की नई किस्में उगाई गई हैं।
भारत-गंगा के मैदानी इलाकों में धान-गेहूँ की उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक हेक्टेयर में 25 किग्रा जिंक का प्रयोग देखा
गया है। हाल ही में गेहूँ के प्रोटीन सामग्री और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए सल्फर का उपयोग देखा गया है।
एमएन (इंडो-गंगा के मैदानी इलाकों में बोरे) की प्रतिक्रिया और बोरान (पूर्वी और सुदूर पूर्वी क्षेत्र) का उपयोग भी लाजमी देखा
गया है।.
पोषक तत्व प्रबंधन
गहन कृषि के साथ, आवश्यक पोषक तत्वों की कमी भी विस्तृत हो गई है। फसलों और मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों पर
अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के तहत किये गए कार्यों में, भारत में मिट्टी में जिंक की कमी की व्यापकता
को प्रदर्शित किया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर, सूक्ष्म पोषक तत्वों में कमी का स्तर : जिंक 46%, बोरान: 17%,
मॉलीबेडनम: 12%, आयरन: 11% और कॉपर: 5% है। सल्फर की कमी भी मिट्टी की एक विस्तृत श्रृंखला (38%) में दर्ज की गई है।
अनाज, बाजरा, तिलहन और दालों आदि
सहित 40 से अधिक फसलों में सल्फर की उपज प्रतिक्रिया प्राप्त की गई है। संभावित उपज का पता लगाने के लिए,
रणनीतियों में शामिल हो सकते हैं
अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के तहत किये गए कार्यों में, भारत में मिट्टी में जिंक की कमी की व्यापकता
को प्रदर्शित किया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर, सूक्ष्म पोषक तत्वों में कमी का स्तर : जिंक 46%, बोरान: 17%,
मॉलीबेडनम: 12%, आयरन: 11% और कॉपर: 5% है। सल्फर की कमी भी मिट्टी की एक विस्तृत श्रृंखला (38%) में दर्ज की गई है।
अनाज, बाजरा, तिलहन और दालों आदि
सहित 40 से अधिक फसलों में सल्फर की उपज प्रतिक्रिया प्राप्त की गई है। संभावित उपज का पता लगाने के लिए,
रणनीतियों में शामिल हो सकते हैं
- लक्षित पैदावार के लिए स्थान विशिष्ट पोषक तत्व प्रबंधन
- अकार्बनिक उर्वरकों के साथ फसल अवशेषों, जैव उर्वरकों आदि का एकीकरण
- पोषक तत्व प्रयोग क्षमताओं में वृद्धि करने के लिए एफआईआरबीएस जैसी जुताई तकनीकें
- कुशल पोषक तत्व प्रबंधन के लिए सुदूर संवेदन
- पोषक तत्व प्रबंधन, पुआल गुणवत्ता के साथ साथ मानव और पशु स्वास्थ्य
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